लाडकी बहिण योजना घोटाला: महाराष्ट्र में सरकारी महिला कर्मचारियों समेत अयोग्य लोगों को लाभ, 4,800 करोड़ पर सवाल
घोटाले का खुलासा: क्या है आरोप?
तीन महीने, दो करोड़ खातों में 4,500 रुपये, और अब सवाल—यह पैसा किसे मिला? महाराष्ट्र की महिलाओं को नकद सहायता देने के लिए शुरू की गई लाडकी बहिण योजना पर बड़े पैमाने पर गड़बड़ी के आरोप लगे हैं। विपक्ष कह रहा है कि लाभ ऐसे लोगों तक भी गया जिन्हें किसी हाल में नहीं मिलना चाहिए था—यहाँ तक कि पुरुषों तक। यह मामला सिर्फ सिस्टम की खामियों का नहीं, चुनावी नैतिकता और डिजिटल गवर्नेंस की साख का भी है।
एनसीपी (एसपी) की नेता सुप्रिया सुले ने दावा किया कि सरकारी आंकड़ों के आधार पर 4,800 करोड़ रुपये का खेल हुआ। उनका कहना है कि बहु-स्तरीय सत्यापन और आधार-बैंक डिटेल्स के साथ DBT होने के बावजूद बड़े पैमाने पर अयोग्य लोग सूची में घुस गए। उन्होंने पूछा—जब हर भुगतान आधार, बैंक और NPCI मैपिंग से गुजरता है तो पुरुषों तक पैसा कैसे पहुंचा? यह लाडकी बहिण योजना घोटाला अब राजनीतिक बहस के केंद्र में है।
टाइमिंग भी सवालों में है। योजना का रोलआउट चुनाव से महज तीन महीने पहले हुआ और इसी दौरान दो करोड़ से ज्यादा लाभार्थियों के खाते में 4,500 रुपये (तीन किश्तें, 1,500-1,500) गए। कांग्रेस, शिवसेना (UBT) और आप का आरोप है कि यह कल्याण के नाम पर वोटों को प्रभावित करने की कोशिश थी। वे कह रहे हैं कि परिवारों के पुरुष सदस्यों तक भुगतान पहुंच जाना बताता है कि बैंकिंग और लाभार्थी-मैपिंग में गंभीर चूक हुई।
सबसे गंभीर आरोप यह कि जिन श्रेणियों को नियमों में बाहर रखा गया था—जैसे आयकरदाता, ऊंची सैलरी वाली महिलाएं, कार मालिक, सरकारी कर्मचारी—उन्हें भी लाभ मिला। आरटीआई से मिली सूचनाओं के हवाले से विपक्ष ने दावा किया कि 150 करोड़ रुपये से ज्यादा के भुगतान फर्जी या अयोग्य लाभार्थियों को गए। कई जिलों में सरकारी महिला कर्मचारियों के खाते में भी राशि पहुंचने की बात सामने आने से शक और गहरा हो गया है।
कहानी यहीं खत्म नहीं होती। पड़ोसी राज्यों के रैकेट्स और बोगस एंट्रीज़ की बात भी उठी है—यानी ऐसे लोग जिन्होंने महाराष्ट्र का निवासी न होते हुए भी दस्तावेजों के साथ छेड़छाड़ कर लाभ लिया। जिलों में जैसे-जैसे बारीक जांच बढ़ी, अयोग्य लाभार्थियों की सूची लंबी होती गई। विपक्ष ने प्रवर्तन निदेशालय (ED) की जांच और चुनाव आयोग की भूमिका पर जवाब मांगा है—कि इतने बड़े पैमाने पर कथित चुनावी लाभ वितरण पर निगरानी क्यों नहीं हुई। शिवसेना (UBT) ने सुप्रीम कोर्ट जाने की घोषणा कर दी है।
सिस्टम कहाँ फिसला और आगे क्या?
अब असली सवाल—यह हुआ कैसे? DBT का दावा है कि आधार-समर्थित eKYC, बैंक खाता सत्यापन, और डेटाबेस मिलान से फर्जीवाड़े की गुंजाइश कम होती है। मगर जमीनी प्रक्रिया बताती है कि लीकेज कई जगह हो सकते हैं: आवेदकों के स्व-घोषणा पत्रों पर भरोसा, जिलों में स्टाफ की कमी, जल्दबाजी में बैच-एप्रूवल, पुराने डेटाबेस का इस्तेमाल, और सबसे अहम—विभिन्न विभागों के डेटा (आयकर, वाहन, संपत्ति, सरकारी सेवा) का रीयल-टाइम इंटीग्रेशन न होना। जब इतनी बड़ी संख्या में आवेदन आए, तो मैनुअल और एल्गोरिदमिक दोनों फिल्टर चूक गए।
पुरुषों तक पैसा जाने का तर्क तकनीकी लगता है, पर संभव है। उदाहरण के लिए, आधार-सीडिंग में जेंडर मिस-मैपिंग, परिवार के संयुक्त खातों में गलत मैपिंग, या किसी महिला के नाम पर बने खाते में अभिभावक/पति का KYC सक्रिय रह जाना। अगर NPCI की प्राथमिक बैंक मैपिंग आधार से लिंक खाते की अलग जानकारी उठा ले, तो भुगतान गलत खाते में चला जाता है। जहां ई-KYC सिर्फ OTP से हुआ, वहाँ फील्ड-वेरिफिकेशन न होने पर बोगस एंट्री की गुंजाइश बढ़ी। अंदरूनी मिलीभगत से bulk-approvals हुए, तो खामियां पकड़ से बाहर चली जाती हैं।
योजना की पात्रता शर्तें खुद चेकलिस्ट मांगती हैं—स्थायी निवास, 21–60 वर्ष की आयु, गैर-आयकरदाता, और आय/संपत्ति की सीमा। मगर इन शर्तों की पुष्टि के लिए अलग-अलग डेटाबेस से क्रॉस-चेक जरूरी है। अगर VAHAN (वाहन रजिस्ट्रेशन), CBDT (आयकर), राज्य के HRMS (सरकारी कर्मचारियों का रिकॉर्ड) और जिला स्तर के सामाजिक-आर्थिक सर्वे से API-आधारित मिलान नहीं हुआ, तो सिस्टम आवेदक की “बात” मान लेता है। यही सिस्टम-गैप कई जगह दिखाई दिया।
जमीनी असर भी भारी है। जब अयोग्य लाभार्थी पैसा ले जाते हैं, तो असली जरूरतमंद पीछे छूटते हैं और बजट दबाव में आता है। कुछ जिलों में अब पहले से हुए भुगतान की वसूली की तैयारी है—बैंकों को रिकवरी रिक्वेस्ट, लाभार्थियों को नोटिस, और भविष्य की किश्तें रोकने की कार्रवाई। अमरावती, पुणे, औरंगाबाद जैसे जिलों में जिला प्रशासन फील्ड-लेवल टीम भेजकर दस्तावेजों की दोबारा जांच कर रहा है। हर दिन नई अयोग्य एंट्री पकड़ में आ रही है।
सरकार की तरफ से संकेत हैं कि राज्यव्यापी ऑडिट चल रहा है। विभागीय अधिकारियों का कहना है कि संदिग्ध भुगतानों की पहचान कर उन्हें रोक दिया गया है और जहां भी गड़बड़ी मिली, वहाँ प्राथमिकी और विभागीय कार्रवाई होगी। अधिकारियों का तर्क है कि बड़े पैमाने पर योजना चलाने में शुरुआती चरण में “अनियमित एंट्री” होना असामान्य नहीं, पर अब 100% री-वेरिफिकेशन का टारगेट तय कर दिया गया है।
विपक्ष की मांगें साफ हैं—ED जांच, चुनाव आयोग की भूमिका तय हो, और जिन अधिकारियों ने निगरानी में चूक की, उन पर जिम्मेदारी तय की जाए। शिवसेना (UBT) सुप्रीम कोर्ट में यह मुद्दा उठाकर चुनावी प्रक्रिया पर प्रभाव और “अवैध लाभ वितरण” को चुनौती देगी। कांग्रेस और आप ने भी डेटा सार्वजनिक करने और स्वतंत्र तकनीकी ऑडिट की मांग की है ताकि पता चले कि वास्तविक रूप से कितने भुगतान संदिग्ध हैं और कितना पैसा वापस लाया जा सकता है।
डिजिटल इंडिया की साख पर भी सवाल खड़े हुए हैं। अगर इतने लेयर के बाद भी फर्जीवाड़ा हुआ, तो समाधान क्या? विशेषज्ञ तीन कदम सुझाते हैं: (1) वास्तविक-समय API इंटीग्रेशन—आयकर, वाहन रजिस्ट्रेशन, राज्य HRMS, संपत्ति टैक्स, और समाज कल्याण डेटाबेस का स्वत: मिलान; (2) डिडुप्लिकेशन और जियो-फेंसिंग—एक व्यक्ति, एक लाभ सिद्धांत के साथ क्रॉस-स्टेट डुप्लीकेट पकड़ना; (3) पारदर्शिता—जिलेवार डैशबोर्ड पर स्वीकृत/अस्वीकृत/रोक दिए गए दावों का अनाम डेटा, ताकि सामाजिक ऑडिट संभव हो। जहां संभव हो, आधार-आधारित भुगतान के साथ खाते-आधारित वैकल्पिक पथ खुला रहे, ताकि NPCI-मैपिंग त्रुटि होने पर भुगतान फेल या गलत खाते में न जाए।
जिन महिलाओं को नोटिस मिल रहा है, उनके लिए जरूरी है कि वे दस्तावेज संभालकर रखें—आय का प्रमाण, निवास, आयु, गैर-आयकरदाता का सर्टिफिकेट, और बैंक KYC। अगर आप पात्र हैं, तो जांच में सहयोग कीजिए; अगर गलती से भुगतान आया है, तो रिकवरी के निर्देशों का पालन करना बेहतर होगा। कई जिलों ने अपील की समयसीमा तय की है—उसे मिस न करें।
आगे क्या? जिलों की रिपोर्ट राज्य सरकार के पास जाएगी, फिर एक समेकित ऑडिट रिपोर्ट बनेगी। अगर ED/ACB जांच शुरू हुई, तो पैसे के फ्लो और संभावित रैकेट का फोरेंसिक ऑडिट होगा—आवेदन फार्म से लेकर NPCI लॉग्स, बैंक UTR तक। सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल होती है, तो चुनावी आचार और कल्याण योजनाओं के समय-निर्धारण पर व्यापक असर पड़ेगा। राजनीतिक तौर पर यह मामला महाराष्ट्र की साख, महिलाओं के कल्याण कार्यक्रमों की विश्वसनीयता और डिजिटल शासन के भरोसे का टेस्ट बन चुका है।